रुड़की(संदीप तोमर)। यह बात बिल्कुल सही है कि राजनीति में व्यक्ति कितना ही सही चल ले-कर ले,पर सभी को संतुष्ट नही कर पाता। इसके पूरे आसार होते है कि कोई या बहुत से असंतुष्ट व्यक्ति कभी भी राजनीतिक व्यक्ति के खिलाफ मुखर हो सकते हैं। जितनी यह बात सही है उतनी ही यह बात भी सही है कि ठाकुरों की जुबान कभी झूठी नही पड़ती। रुड़की के पूर्व मेयर यशपाल राणा ने ठाकुरों की जुबान वाली इस बात को इस रूप में पूरी तरह सच साबित किया है कि कई आफतों के बाद भी उन्होंने अपने किये वायदे अनुसार कांग्रेस नही छोड़ी और भाजपा में जाना गंवारा नही किया। राणा की इस बात का न सिर्फ नगर का मुस्लिम वर्ग कायल है बल्कि शायद यही कारण है कि वह यहां कांग्रेस की राजनीति में सबसे ज्यादा प्रभावी हैं। यहां तक कि बड़ी तादाद में गैर मुस्लिम भी इसे बड़ी बात मानते हैं।
अब जबकि भाजपा चुनावी मोड़ में रामपुर और पाडली नगर निगम से हटाए जाने को लेकर धार्मिक कार्ड खेल चुकी है और जहां सीएम से लेकर शहरी विकास मंत्री तक के बयान इस मसले पर आ चुके हैं,वहीं अपनी सभाओं में खुद भाजपा नेता लगातार इस मसले को हवा देते हुए चुनावी माहौल अपने पक्ष में गर्म करने के प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में नगर निगम के भाजपा सरकार द्वारा बनाये गए वर्तमान चुनावी नक्शे में मौजूद लगभग 27 हजार मुस्लिम वर्ग के मतदाता लोग भी चुनाव को दूसरे नजरिये से देखने लगे हैं। कौन प्रत्याशी उनके लिए कैसा रहा है और कैसा रहेगा?इस मुद्दे पर मुस्लिम वर्ग गम्भीरता से मंथन कर रहा है। इनमें भाजपा से बागी हुए गौरव गोयल अपनी छवि टिकाऊ के रूप में प्रस्तुत करने के प्रयास कर रहे हैं। उनके प्रयास कितने सफल होंगे?यह वक्त बताएगा। बसपा प्रत्याशी पूर्व सांसद राजेन्द्र बाड़ी भी मुस्लिम वर्ग का भरोसा जीतने की जुगत में है। निर्दलीय सुभाष सैनी आज तक निर्दलीय ही रहे हैं,ऐसे में वह अपनी संभावनाएं मुस्लिम वर्ग में मजबूत प्रयासों के साथ तलाश रहे हैं। मुस्लिमों की एक बड़ी संख्या को उनमें आशा की किरण दिखती है। यह और कितना विस्तार लेगी,वक्त तय करेगा।
ऐसे में बचे कांग्रेस प्रत्याशी रिशू सिंह राणा की बात आती है तो मुस्लिम वर्ग उनके भाई पूर्व मेयर यशपाल राणा को याद करता है। यह सही है कि पांच वर्ष के मेयर कार्यकाल में यशपाल राणा के मुस्लिम वर्ग में कुछ राजनीतिक विरोधी भी बने,लेकिन एक वचन ऐसा है जिसे लेकर अधिकांश मुस्लिम वर्ग समेत राजनीतिक विरोधी मुस्लिम भी यशपाल राणा के कायल नजर आते हैं। वह वचन है कांग्रेस न छोड़ने का वचन। निर्दलीय मेयर बने यशपाल राणा ने निगम संचालन की जरूरत को देखते हुए तब की सत्तारूढ़ कांग्रेस के साथ जाने का निर्णय लिया था। तब उन्होंने एक वचन दिया था कि वह कांग्रेस नही छोड़ेंगे। राणा अपने इस वचन पर आज तक कायम है। सबसे अहम बात कई आफ़तें सिर पड़ने के बाद भी वह ठाकुर मर्द की तरह अपने इस वायदे को निभा रहे हैं। उससे भी दिलचस्प यह कि राणा पर जब भी आफत पड़ी तो उन्होंने उनका सामना अपने से जुड़ी कांग्रेस लॉबी और अपने समर्थकों के बूते किया। वह कांग्रेसी उनके साथ इन आफतों से निपटने में खड़े नही हुए जो,पार्टी टिकट के दावेदार थे और जिन्होंने उनकी पत्नी को टिकट होने पर बकायदा विरोध में प्रेस वार्ता तक कर डाली थी। यहां यह जिक्र करना भी सही होगा कि यशपाल राणा दाएं-बाएं के किसी रास्ते से भी भाजपा के नेताओं से कोई सम्बन्ध नही रखते। जैसे कांग्रेस के कुछ नेता जातिगत संगठन के नाम पर तो कुछ कारोबारी होने के कारण किसी न किसी रूप में भाजपा नेताओं से जुड़े नजर आते हैं। कांग्रेसी नेताओं की एक बड़ी लॉबी के संरक्षण व संवर्धन में यशपाल राणा रुड़की में भाजपा विरोध की राजनीति का कांग्रेसी केंद्र बन गए हैं और शायद इसे देखते हुए ही पार्टी हाईकमान ने उनकी पत्नी श्रेष्ठा राणा का टिकट बदलकर उनके भाई रिशू सिंह राणा को देने में देर नही लगाई।
इन सब बातों के साथ ही गैर मुस्लिम और विशेषतः मुस्लिम वर्ग यशपाल राणा पर जनता के कामों के लिए आई आफतों को देखते हुए पार्टी में जमे रहने को लेकर उनका कायल है। शहीद चंद्रशेखर चौक का मसला हो,गंगनहर के पुल पर जबरन नामकरण का मामला हो या फिर रामनगर की दुकानों का प्रकरण हर प्रकरण में राणा सिस्टम से टकराये और शायद इसी के फलस्वरूप पूर्व पार्षद चंद्रप्रकाश बाटा से उनका विवाद हुआ तो बेवजह की धाराएं लगाकर उन्हें जेल भेजने के आरोप पुलिस प्रशासन पर लगे। यहां तक कि पुलिस को बैकफुट पर आकर धाराएं हटानी पड़ी। पूरे मामले में कहीं न कहीं पुलिस की किरकिरी हुई और जनता में भाजपा सरकार के खिलाफ सन्देश गया। इसी तरह भले राणा के चुनाव लड़ने पर रोक के तकनीकी कारण अपनी जगह सही या गलत हो,पर आम जन में कहीं न कहीं राणा के उत्पीड़न का ही सन्देश है।
इस सबके बीच ऐसे अनेक मौके आये,जब खुद भाजपा के बड़े नेताओं ने यशपाल राणा को पार्टी में शामिल होने के न्यौते दिए। कुछ लोगों ने स्वामी रामदेव के सानिध्य में भी उन्हें भाजपा में लाने के प्रयास किये। यही नही विगत लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी के सीएम की जनसभा के दौरान तो पूरी चर्चा चल गयी थी कि यशपाल राणा भाजपा में शामिल हो जाएंगे। लेकिन ऐसा नही हुआ और यशपाल राणा आज तक अपने इस वायदे पर तमाम आफतों के बाद भी कायम है। इस सबको देखते हुए मुस्लिम वर्ग और बड़ी तादाद में गैर मुस्लिम भी उनके कायल नजर आते हैं। अब चुनाव में वह अपने जुबान पर खरे रहने की इस बात का मुस्लिम वर्ग में अपने भाई रिशू सिंह राणा के लिए कितना लाभ ले पाएंगे?यह वक्त बताएगा। बाकि वह साफ कर ही चुके हैं कि रिशू का चेहरा है चुनाव तो वही लड़ रहे हैं।