डॉक्टर नैयर काजमी ने रोजों को बताया इबादतो की रूह


नितिन कुमार
रुड़की।मुस्लिम बुद्धिजीवी हाजी डॉक्टर नैयर आजम काजमी रोजा को इबादतों की रूह बताते हुए कहते हैं कि रोजे की सभी धर्मों में किसी ना किसी रूप में अहमियत है।पारसी,यहूदी,ईसाई एवं यूनानी के यहां रोजे का वजूद मिलता है,जबकि हिंदू धर्म का व्रत(रोजा)एक अहम हिस्सा है। दुनिया के सभी धर्मों में रोजे का अपना वजूद है,जबकि मजहब इस्लाम में रमजान महीने का रोजा एक अहम हिस्सा है। अल्लाह रोजे का सवाब स्वयं देता है।हदीस ए पाक में अल्लाह फरमाता है कि बंदा रोजा केवल मेरे लिए रखता है।सुबह से शाम तक भूखा प्यासा रहता है।गुनाहों से बचता है और मेरी खुशी हासिल करने के लिए सब्र और बर्दाश्त का प्रदर्शन करता है। इसलिए इसका बदला अल्लाह ताला सवाब के रूप में अपने बंदों को स्वयं देगा।रोजा बुरे कामों से बचने और नेक काम करने का माध्यम है।रोजा केवल इबादत ही नहीं बल्कि इबादतों की रूह है। रोजा एक ऐसी उपासना है जो इंसान के लिए शारीरिक और व्यवहारिक रूप से फायदेमंद है। रोजा रोजेदार के लिए गंदगी को पाक करता है और बुरे कामों को ले जाने वाली चीजे से दूर करता है।रोजे से दिल और दिमाग को सुकून मिलता है।रमजान को अल्लाह ताला ने तीन भागों में विभाजित किया है।पहला अशरा, दूसरा और तीसरा अशरा,जो दस- दस दिन के होते हैं।पहला रहमत, दूसरा मगफिरत और अंतिम अशरा दोजख से बचने का है। रोजा अल्लाह ताला की रहमत और बरकतों को लूटने का जरिया है।रोजे के दौरान भूख की वजह से इंसान उन लोगों के बारे में भी सोचता है,जो गरीबी के कारण भूखा सोने पर मजबूर है।

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