रुड़की नगर निगम चुनाव की यह है हकीकत,जानिए क्या हुई पर्दे के पीछे राजनीति,राणा ने जिंदा की कांग्रेस तो विधायक बत्रा समर्थकों ने दफन की भाजपा…

रुड़की(संदीप तोमर)। हाल में सम्पन्न नगर निगम चुनाव की बारीकी के साथ समीक्षा की जाए तो नजर आता है कि मुक़ाबला भाजपा विधायक प्रदीप बत्रा और पूर्व मेयर यशपाल राणा के बीच हुआ। लेकिन इस संघर्ष में यशपाल राणा ने जहां अपने दल कांग्रेस को ज़िंदा कर दिया,वहीं प्रदीप बत्रा के समर्थकों ने उनके दल भाजपा को दफन कर दिया। इन दोनों के संघर्ष में बाकी सब लोग मोहरे साबित हुए। कमाल यह है कि आरोप अनुसार अपने उद्देश्य की पूर्ति में प्रदीप बत्रा अपने धुर विरोधी हरीश रावत का भी सहयोग हासिल करने में कामयाब रहे। दूसरी ओर यशपाल राणा ने मुस्लिम समुदाय के बीच हरीश रावत को किनारे करके इमरान मसूद को स्थापित कर दिया। उम्मीद की जा रही है कि यह राजनीति केवल मेयर या 2022 के विधानसभा चुनाव की ही नहीं है,बल्कि यह 2024 तक विस्तार पा सकती है। महाराष्ट्र के उदाहरण को सामने रखते हुए लोग उम्मीद कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी का आभा मंडल दरक रहा है और कांग्रेस के दौर की वापसी हो रही है।


ऐसा माना जाता है कि नगर के भाजपा विधायक प्रदीप बत्रा महज़ विधायक बनकर संतुष्ट नहीं हैं। कहा जाता है कि वे निगम भी अपने नियंत्रण में चाहते हैं। आरोप है कि इसी उद्देश्य के तहत उन्होंने गौरव गोयल की पीठ पर तब पूरे तौर पर हाथ रख दिया था,जब भाजपा में मयंक गुप्ता को टिकट मिलना तय हुआ था। लेकिन यह समझना नादानी है कि अगर टिकट मयंक गुप्ता के अलावा किसी और को,मसलन ललित मोहन अग्रवाल या अजय सिंघल को,मिल जाता तो बत्रा का रवैया कुछ और होता। तब भी गौरव गोयल ही कथित रूप से बत्रा खेमे के प्रत्याशी होते। जिन्हें बागी के रूप में चुनाव में आना ही था। दरअसल,कहा जा रहा है कि बत्रा का भाजपा को साफ़ संकेत था कि या तो पार्टी गौरव गोयल को टिकट दे या फिर मेयर सीट हारने के लिए तैयार रहे। यहां तक कि सूत्र यह भी कहते हैं कि इस योजना का ब्लू प्रिंट कथित रूप से उन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव से भी पहले तैयार कर लिया था। इसी योजना के तहत गौरव गोयल ने विधानसभा चुनाव में बत्रा का ख़ुशी-ख़ुशी साथ देना स्वीकार कर लिया था,ऐसा सूत्रों का कहना है। कमाल यह है कि मयंक गुप्ता ने टिकट की जिद्द पर अड़कर कथित रूप से बत्रा का काम आसान ही किया। सूत्रों का दावा है कि दरअसल यही बत्रा चाहते थे। कथित रूप से बत्रा की रणनीति की सफलता के लिए ज़रूरी था कि भाजपा का टिकट किसी बनिए को ही मिले।

दरअसल,इस मामले में कथित तौर पर बत्रा की काट केवल एक बात में थी। वह यह कि भाजपा संजय अरोडा को टिकट दे देती। दूसरा पंजाबी चेहरा सामने आते ही कथित रूप से बत्रा बेबस हो जाते। वे किसी भी सूरत में बनिया बागी को पंजाबी बिरादरी का वोट कथित रूप से न दिला पाते,जिस प्रकार 2013 में राम अग्रवाल को नहीं दिला पाये थे। तब उन्हें उसी तरह हारना पड़ता,जिस प्रकार वे 2013 में चौतरफा हारे थे। तब या तो भाजपा को जीत मिलती, जिसकी सौ प्रतिशत सम्भावना थी,या फिर कांग्रेस को। भाजपा के रणनीतिकार अगर नामंकन के समय संजय अरोडा की भाजपा वापसी न कराते और उन्हें बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ लेने देते तो भी बत्रा को मात दे सकते थे। लेकिन वे चूक कर गए। लेकिन अब हालात अलग हैं। अब भाजपा हारी है और कथित रूप से बत्रा जीत गए हैं।


भाजपा के लिए भले ही यह संतोष की बात हो कि ‘गौरव भी अपने ही हैं।’भले ही बनियों ने इसी पर संतोष करते हुए भाजपा के खिलाफ वोट डालने का कड़वा घूंट वह भी बिलकुल अंतिम समय पर,पी लिया हो। लेकिन ज़ाहिर है कि मयंक गुप्ता ऐसा नहीं सोच सकते। फिलहाल वे इसी की पेशबंदी कर रहे हैं। भाजपा पार्षद दल की कमान अपरोक्ष रूप से मयंक गुप्ता के हाथ में ही रहने वाली है। यह इस बात का प्रमाण है कि गौरव गोयल के मेयर बन जाने के बावजूद निगम में प्रदीप बत्रा की कथित रूप से एकतरफा चलने वाली नहीं है।

हैंड फ्री क्या होता है?

सूत्रों के अनुसार अब विधायक समर्थक इस पूरे मामले पर ध्यान बटाने को प्रचार कर रहे हैं कि विधायक बत्रा को पार्टी यानि भाजपा ने फ्री हैंड नही दिया,लेकिन विधायक के सभी प्रतिनिधियों और सैकड़ो समर्थकों को मिला फ्री हैंड भी पार्टी की नजर में है,ऐसा सूत्रों का कहना है।

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