(रुड़की निगम चुनाव)वास्तव में सुभाष सैनी ही हैं पहले निर्दलीय प्रत्याशी,अभी तक निर्दलीय नही दलों के बागी जीते चुनावों में,पर खुशफहमी के शिकार न हों गौरव गोयल

रुड़की(संदीप तोमर)। 2003 फिर 2008 और उसके बाद 2013 का चुनाव। रुड़की नगर पालिका और बाद में एक चुनाव नगर निगम के इतिहास पर आम जन जब नजर डालता है तो उसके मुहं से एकदम से निकलता है कि पिछले तीनों चुनाव यहां(दो पालिका चैयरमैन और एक मेयर)निर्दलीय ही जीतता आया है। सिर्फ आम जन ही नही राजनीति के जानकार और कई पत्रकार तक भी एकदम से इस बात को कह देते हैं कि उत्तराखण्ड गठन के बाद से रुड़की में निर्दलीय नगर प्रमुख जीतने का इतिहास रहा है। जबकि हकीकत इससे अलग है। सच तो यह है कि रुड़की में पिछले तीनों चुनाव निर्दलीय नही बल्कि दलों के बागी प्रत्याशियों ने जीते हैं। जिनमें एक कांग्रेस और एक भाजपा से बागी होकर चुनाव जीते तो एक ऐसे थे,जो भाजपा या कांग्रेस किसी भी दल से टिकट की चाह में थे,लेकिन दोनों ही दलों से टिकट न मिलने पर मैदान में बागी हो उतरे और चुनाव जीते। यूं बाद में यह सभी फिर से दलों में ही शामिल हो गए। जहां तक विशुद्ध रूप से निर्दलीय प्रत्याशी की बात है तो लोकतांत्रिक जनमोर्चा संयोजक सुभाष सैनी के रूप में ऐसा प्रत्याशी इस बार के चुनाव में पहली बार मैदान में उतरा है,जिस पर आज तक किसी भी दल का ठप्पा नही है और जो अपने अभी तक के राजनीतिक जीवन में पूरी तरह निर्दलीय ही रहा है।

यह सही है कि 2003 के पालिका चैयरमैन चुनाव में हुई दिनेश कौशिक की ऐतिहासिक जीत को नामांकन और अन्य कागजी लिहाज से निर्दलीय प्रत्याशी की ही जीत कहा जायेगा। किन्तु धरातल का सच यह है कि यह जीत युवा अवस्था से जवानी तक कांग्रेस की राजनीति करने वाले दिनेश कौशिक को कांग्रेस का टिकट न मिलने पर उनके पार्टी से टक्कर लेते हुए चुनाव लड़ने पर एक बागी को मिली जीत थी। 5 साल का कार्यकाल पूरा कर दिनेश कौशिक फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और इसके बाद 2008 में वह बतौर कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे तो उन्हें आशा से भी कम वोट मिल पाए। इसके कारणों में उनके निर्दलीय चुनाव जीतने के बाद फिर से दलीय राजनीति का सहारा लेने को भी एक कारण माना जाता है।

उधर 2008 में ही एक और बागी की पालिका चैयरमैन बनने की पटकथा लिखी गई। वह थे,मौजूदा विधायक प्रदीप बत्रा। दिलचस्प यह कि बत्रा को दोनों दलों भाजपा व कांग्रेस का बागी कहा जा सकता है। तब के भाजपा विधायक सुरेश जैन ने उन्हें बीजेपी टिकट का भरोसा दे रखा था,लेकिन यह भरोसा टूटा तो बत्रा कुछ लोगों के सम्पर्क में आकर कांग्रेस टिकट पाने के प्रयासों में भी जुटे थे। पर यहां भी असफल रहकर वह बागी के रूप में चुनाव मैदान में उतरे और सफल रहे। लेकिन बाद में इन्ही प्रदीप बत्रा ने 2012 में फिर से दल के रूप में कांग्रेस को पकड़कर खुद भले महज 801 वोटों से विधायकी जीत ली हो,लेकिन यही बत्रा 2013 में तब तक निगम बन चुके रुड़की में मेयर चुनाव के लिए कांग्रेस से अपने बिजनेस पार्टनर राम अग्रवाल को लेकर आये तो उन्हें शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा।

तीसरे प्रसंग के रूप में 2013 में भाजपा से पार्षद का टिकट कटने पर बागी होकर चुनाव लड़ते हुए मेयर बने यशपाल राणा का उदाहरण सबके सामने है। यशपाल राणा भी चुनाव जीतने के कुछ समय बाद कांग्रेस में शामिल हो गए। अब अपने भाई रिशू सिंह राणा को कांग्रेस प्रत्याशी बनवाकर यशपाल राणा पूरी तरह दलीय राजनीति कर रहे हैं।

इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि रुड़की में 2003 से आज तक निर्दलीय नही दल से बागी होकर आया नेता चुनाव जीता है। अब शायद इस इतिहास और जानकारी को देखते हुए हाल ही में भाजपा से बागी बने गौरव गोयल शायद बहुत खुश हों। लेकिन ऐसे भी कुछ तथ्य हैं जिन पर ध्यान देते हुए गौरव गोयल को इन जानकारियों के प्रकाश में कोई बहुत ज्यादा खुश भी नही होना चाहिए। दरअसल दिनेश कौशिक हों,फिर प्रदीप बत्रा या फिर यशपाल राणा इन सभी ने पार्टी से चुनाव लड़ने से पूर्व कुछ नही मांगा। दिनेश कौशिक तो आर्थिक रूप से भी बहुत तंग थे। उन्हें गरीब ब्राह्मण कहा जाता था। प्रदीप बत्रा अपने व्यवसायिक प्रतिष्ठानों को लेकर रोज रोज विभिन्न विभाग और दलों की चंदा वसूली से परेशान थे। यशपाल राणा निम्न स्तर की राजनीति का शिकार होकर पार्षद के टिकट से वंचित रह गए थे। इसके उलट गौरव गोयल को पार्टी ने बहुत कुछ दिया। लगभग 41 वर्षीय गौरव गोयल को जो भी राजनीतिक पहचान मिली वह आरएसएस और भाजपा के कारण मिली। राज्य गठन के बाद कई बार भाजपा सरकारें बनी तो किसी का कोई काम यदि गौरव गोयल ने कराया भी होगा तो वह भाजपा से जुड़े होने के कारण ही सम्भव हो पाया होगा। जहां तक गौरव गोयल को पार्टी टिकट न मिलने की बात है तो टिकट पर उनसे पहले हक वास्तव में बनता ही मयंक गुप्ता का था। मयंक गुप्ता पिछले कई चुनाव में टिकट को लेकर हाथ मलते मलते रहे हैं। उनकी राजनीतिक छवि को लेकर आरोप अपनी जगह सही या गलत हो सकते हैं,किंतु चारित्रिक रूप से मयंक गुप्ता की छवि बेदाग है। जबकि गौरव गोयल को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं और आरोप लगातार लगते आएं हैं। ऐसे ही एक प्रकरण का जिक्र जल्द ही होगा।

खैर जहां तक बागी प्रत्याशी के रूप में गौरव गोयल को समर्थन की बात करें तो पार्टी स्तर पर किसी अन्याय को लेकर स्थिति का उल्लेख पहले ही हो चुका है। इससे इतर गौरव गोयल को यह भी नही भूलना चाहिए कि जो भी प्रत्याशी आज तक यहां दल से बागी होकर जीता,उसकी जीत का बड़ा कारण मुस्लिम वर्ग बना। लेकिन दिनेश कौशिक व यशपाल राणा को छोड़ दें तो प्रदीप बत्रा से यह वर्ग उनके भाजपा से जुड़ते ही उपेक्षा का शिकार बना। सुरेश जैन के भाजपा से कांग्रेस में आने और फिर हारते ही धोखा देकर भाजपा में ही चले जाने के घटनाक्रम को मुस्लिम वर्ग हाल ही में देख चुका है,जबकिं भले जैन चुनाव हारे हों पर मुस्लिम वर्ग ने उन्हें अपना भरपूर समर्थन दिया था।

ऐसे में मुस्लिम वर्ग गौरव गोयल पर भरोसा करेगा?इसके आसार कम ही दिखते हैं। वो भी तब जबकि गौरव गोयल के अभी भी कई आरएसएस नेताओं से लगातार संपर्क में होने की जानकारी सामने हैं। यहां तक कि वह टिकट कटने तक की बात पर तो रोना रो रहे हैं और भाजपा नेताओं को तो उन्होंने गलत बताया है पर भाजपा को नही। न ही पूरे तौर पर भाजपा व संघ से रिश्ते खत्म होने की विधिवत घोषणा की है।


अब बात करें सुभाष सैनी की तो 2003 के बाद से अभी तक के निकाय चुनाव में वह पहले निर्दलीय प्रत्याशी हैं। उन पर आज तक किसी दल का ठप्पा नहीं है। यह सही है कि वह लंबे समय तक एक निष्ठावान शिष्य की तरह वरिष्ठ भाजपा नेता व पूर्व मंत्री डॉ पृथ्वी सिंह विकसित से जरूर जुड़े रहे और यदि स्वर्गीय विकसित आज जीवित व स्वस्थ होते तो कहीं ना कहीं अपना राजनीतिक आशीर्वाद उन्हें जरूर देते। वैसे स्व.विकसित समर्थकों में सुभाष सैनी के नाम का बड़ा क्रेज नजर आता हैं और अब कहीं न कहीं स्व.विकसित के राजनीतिक विरोधी रहे पूर्व मंत्री रामसिंह सैनी के समर्थकों में भी सुभाष सैनी के नाम की चाहत बढ़ती दिख रही है। खैर दलीय तौर पर कोई ठप्पा सुभाष सैनी पर नहीं लग पाया है। न ही कोई ऐसे हालात लगते हैं कि चुनाव बाद वह किसी दल में शामिल हो जाएंगे। ऐसे में नए समीकरणों में मुस्लिम वर्ग निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में सुभाष सैनी के बारे में कुछ विचार करे,तो शायद कोई बड़ी बात नहीं होगी। यह संभावना तब और ज्यादा बढ़ सकती है जब सुभाष सैनी का सजातीय सैनी वर्ग बहुतायत में उनकी ओर चलता हुआ मुस्लिम वर्ग को नजर आ जाए।

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